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the bazaars of bundelkhand | बुन्देलखण्ड के बाज़ार

Thursday 14 May 2015

दुर्गा वाहिनी या मिस इण्डिया?

(फोटो साभार: द वर्ल्ड बिफोर हर)
मैंने निशा पाहुजा की फिल्म ‘द वल्ड बिफोर हर’ देखी। वैसे मुझे डाक्युमेन्ट्री फिल्में पसंद नहीं हैं, लेकिन इस फिल्म को देखते समय मैं एक पल को भी अपना ध्यान नहीं हटा पाई। 
फिल्म में दो ऐसी लड़कियों की कहानी दिखाई गई है जिनकी सोच एक दूसरे से बिलकुल अलग है - एक जो मॉडर्न है और दूसरी जो इसके बिलकुल विपरीत। उसे हम पुराने खयालात वाली कहें या कट्टर - ये सोच सकते हैं।

एक लड़की मिस इंडिया बनने के लिये जाती है तो दूसरी दुर्गा वाहिनी (जो विश्व हिन्दू परिषद से जुड़ा है) के कैम्प में जहां उसे खुद की और हिन्दू धर्म की रक्षा करने की ट्रेनिंग दी जाती है। फिल्म देखकर मुझे एहसास हुआ कि दरअसल दोनों ही जगह लड़कियों का इस्तेमाल किया जा रहा है - क्योंकि दोनों ही जगह कमान तो मर्दों के ही हाथ में होती है। ये फिल्म आपको सोचने पर मजबूर कर देती है कि आप 'आत्मविश्वास' किसे कहेंगे - जो बहुत खूसूरत है या उसे जो बहुत ताकतवर है?


अगर दुर्गा वाहिनी कैम्प को देखें तो क्या जिन लड़कियों को यहां भेजा जाता है उन्हें सशक्त माना जाएगा? या उनके अन्दर बस नफरत भरी जाती है? दूसरी तरफ मिस इंडिया प्रतियोगिता में भाग ले रही लड़की अंकिता खुद पूछती है ‘हमें अपना मुकाम हासिल करना सिखाया जाता है लेकिन किस कीमत पर? मुझे बिकनी पहनना पसंद नहीं लेकिन पहनना पड़ा।’ वहीं दुर्गा वाहिनी कैम्प की लीडर प्राची के अपने सवाल हैं। वो शादी नहीं करना चाहती है लेकिन फिर खुद कहती है कि उसके मन में जो भी हो, शादी तो उसे करनी ही पड़ेगी। और तप और उसे दूसरी लड़कियों को भी यहीं बताना होगा कि शादी करो और बच्चे पैदा करो ताकि आने वाली पीढ़ी को तुम वो सिखा सको जो कैम्प में तुम्हें सिखाया जा रहा है। 

मुझे फिल्म देखते देखते ऐसा लगा कि कई बातें हैं जिनका आप पर असर ना पड़े या जिन्हें देखते ही आपको कुछ महसूस ना हो - ऐसा बहुत मुश्किल है। मुझे उस समय बहुत गुस्सा आया जब प्राची के पिता कहते हैं कि परिवार एक फैक्ट्री है जहां लड़कीयों को बनाया जाता है। मिस इंडिया प्रतियोगिता में भी जो ट्रेनर दिखाई गई हैं (मुझे उसका नाम याद नहीं आ रहा) वो भी कहती हैं कि प्रतियोगिता की ट्रेनिंग एक कैम्प, एक फैक्ट्री है जहां लड़कियों की खूबसूरती को तराशा जाता है। मानो वो इंसान कोई सामान हो! उसे ये तक बताया जाता है कि वो अगर कामयाब होकर निकली तो उसका 'मार्केट रेट' क्या होगा। 

एक चीज़ और याद आती है जिसके बारे में सोचकर मुझे हंसी और गुस्सा दोनों आते हैं। फिल्म में एक सीन है जिसमें प्राची के पिता लड़कियों के कपड़ों पर लम्बा चौड़ा भाषण देते हैं और पूरे समय खुद तीन-चार औरतों के बीच बस एक तौलिया लपेटे बैठे हैं। उन्हें अपने कपड़े तो दिख ही नहीं रहे थे। 

ये लिखते-लिखते अब मेरा मन दोबारा से इस फिल्म को देखने का कर रहा है। 

इस फिल्म की निदेशक निशा पाहुजा का खबर लहरिया द्वारा किया गया इंटरव्यू आप यहां पढ़ सकते हैं। 

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- लक्ष्मी शर्मा खबर लहरिया अखबार से 2010 से जुड़ी हुई है। 2014 में लक्ष्मी बिहार के शिवहर ज़िले से लखनऊ शिफ्ट हुई और तब से अखबार की ब्यूरो चीफ है। अपने बच्चों के बाद लक्ष्मी को सबसे ज़्यादा कम्प्यूटर भाता है। लक्ष्मी को शुरू से ही फिल्में देखने का शौक रहा है। इसके अलावा उसे कानून की पढ़ाई और टेक्नॉलजी में ख़ास रूचि है। 



1 comment:

  1. Family is a factory where women are made? What is the sole purpose of this product called "woman". To start another woman producing family. Sadly this is the thinking in many parts of India and world where woman's sole aim in life is to start a family. It is a vicious cycle that can only be broken by creating awareness among them.

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